रिपोर्टर टेकराम कोसले
Masb news
लेखक: राजेंद्र शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार, संपादक – लोकलहर)
राजेंद्र शर्मा का यह व्यंग्य शिक्षा के नाम पर विचारधारा को थोपने की कोशिशों का तीखा और तंजपूर्ण विश्लेषण है। यह लेख ‘मनुस्मृति पढ़ाने’ के मसले को सतह से नहीं, गहराई से पकड़ता है।
लेखक चुटीले अंदाज़ में कहता है कि “जब हिंदू राष्ट्र में मनुस्मृति लागू होगी, तब विरोधियों को रोकने फौज बुलानी पड़ेगी!” यह पंक्ति न केवल कटाक्ष है, बल्कि सत्ता की उस आकांक्षा की ओर भी संकेत है जिसमें संविधान को दरकिनार कर ‘धार्मिक ग्रंथ’ को समाज का मार्गदर्शक बनाना चाहा जा रहा है।
शर्मा व्यंग्य के ज़रिए सवाल उठाते हैं:
क्या शिक्षा का उद्देश्य विचारधारा थोपना है?
क्या मनुस्मृति का पाठ समाज को पीछे ले जाने की साजिश है?
क्या आरक्षण के नाम पर दासता का दर्शन पढ़ाया जाएगा?
वह स्मृति दिलाते हैं कि मनुस्मृति की मूल भावना, आज के संविधान की बुनियादी आत्मा से टकराती है। इसमें महिलाओं, दलितों और शूद्रों के लिए स्थायी दासता का विधान है — जिसे व्यंग्य में ‘पूर्व-निर्धारित आरक्षण’ कहकर चुटकी ली गई है।
लेख अंततः इसी विडंबना पर खत्म होता है कि
“हो सकता है राज पहले आ जाए, पढ़ाई बाद में भी हो सकती है!”
यह वाक्य दरअसल चेतावनी है — कि अगर हम सोते रहे, तो मनुस्मृति का शासन बिन पढ़े ही हम पर लादा जा सकता है।
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✒️ व्यंग्य 2
“मंदिर नहीं, इस्तीफा चाहिए”
लेखक: विष्णु नागर (प्रसिद्ध साहित्यकार, व्यंग्यकार, पत्रकार)
इस व्यंग्य में नागर लोकतंत्र की अंतरराष्ट्रीय बनाम भारतीय परिभाषा पर करारी टिप्पणी करते हैं। वह मंगोलिया, सर्बिया, कनाडा जैसे देशों के उदाहरण देते हैं, जहाँ छोटे से नैतिक मुद्दों पर प्रधानमंत्री इस्तीफा दे देते हैं — और भारत में जहाँ लोकतंत्र “मदर ऑफ डेमोक्रेसी” होने का दंभ भरता है, वहाँ सत्ता की नैतिक ज़िम्मेदारी एक जोकर का जादू बन चुकी है।
लेखक का कटाक्ष तीखा है:
> “यहां चूं करने का अधिकार तो है, लेकिन चूं करने पर जेल में डाल दिया जाएगा।”
यह लेख भारतीय लोकतंत्र के उस विडंबनापूर्ण स्वरूप को दर्शाता है जहाँ—
जवाबदेही का कोई स्थान नहीं।
इस्तीफा देना तो दूर, इस्तीफा मांगने वाला ही दंडित हो जाता है।
विपक्ष की भूमिका को सत्ता खुद ही निभाने लगती है — “अब सत्ता पक्ष, विपक्ष से इस्तीफे मांगता है!”
लेखक, व्यंग्य में यह कह कर कि “मुझसे लेखक पद से इस्तीफा मांग लिया गया है!” लोकतंत्र के उस भयावह यथार्थ की ओर संकेत करते हैं, जहाँ सवाल पूछना भी अपराध बन गया है।
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🗣️ प्रस्तावित निष्कर्ष एवं संपादकीय विश्लेषण:
इन दोनों लेखों में अलग-अलग विषय — शिक्षा में विचारधारा की घुसपैठ और लोकतांत्रिक जवाबदेही का हास्य — एक ही साझा उद्देश्य की ओर इशारा करते हैं:
भारत में लोकतंत्र के वास्तविक मूल्य — उत्तरदायित्व, विवेक, तर्क, और समानता — खतरे में हैं।
राजेंद्र शर्मा और विष्णु नागर का व्यंग्य ‘हँसाने के लिए’ नहीं लिखा गया है, यह ‘चेताने के लिए’ है। ये लेख सत्ता के दंभ को उधेड़ते हैं, और पाठक को याद दिलाते हैं कि लोकतंत्र सिर्फ वोट नहीं, विचार भी होता है — और विचार पर हमला, लोकतंत्र की आत्मा पर हमला है।
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📰 प्रकाशन में उपयोग हेतु उपशीर्षक/हेडिंग सुझाव:
“मनुस्मृति से लोकतंत्र तक: व्यंग्य में छिपा राष्ट्र का विमर्श”
“व्यंग्य का आईना: सत्ता की हकीकत”
“हँसी के पीछे की हूक : शर्मा और नागर की व्यंग्य दृष्टि”
“जब इस्तीफा भी व्यंग्य हो गया”
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📚 लेखक परिचय:
राजेंद्र शर्मा – वरिष्ठ पत्रकार और सामयिक विषयों के प्रखर विश्लेषक हैं। आप ‘लोकलहर’ साप्ताहिक के संपादक हैं और विभिन्न समाचार पत्रों में स्तंभकार के रूप में चर्चित हैं।
विष्णु नागर – हिंदी के ख्यातिलब्ध साहित्यकार, व्यंग्यकार और कवि हैं। वे जनसत्ता सहित अनेक राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में संपादक रहे हैं। उनकी भाषा, व्यंग्य और सामाजिक आलोचना तीनों में गहरी पैठ है।