रिपोर्टर टेकराम कोसले
Masb news
विषयवस्तु का सार:
1. संघ-भाजपा की फासीवादी राजनीति और संविधान पर खतरा
लेखक स्पष्ट करते हैं कि संघ परिवार की विचारधारा संविधान विरोधी रही है। 400 पार का नारा संविधान को बदलने की योजना का हिस्सा था। अब जबकि जनादेश ने उन्हें बहुमत से वंचित कर दिया, फिर भी उनके नेता खुलेआम संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्द हटाने की मांग कर रहे हैं। यह टिप्पणी बताती है कि हिंदू राष्ट्र की परियोजना का लक्ष्य अभी अधूरा है, और उसे पूरा करने के लिए संविधान को उखाड़ फेंकना आवश्यक है — पर यह संभव नहीं, क्योंकि भारतीय जनमानस और उसकी साझी संस्कृति इसका प्रतिकार करेगी।
2. हिंदी थोपने की राजनीति का विरोध और भाषायी लोकतंत्र की मांग
दूसरे खंड में यह तर्क दिया गया है कि हिंदी का विरोध नहीं, बल्कि थोपे जाने का विरोध हो रहा है। दक्षिण भारत में हिंदी के प्रति बढ़ती स्वाभाविक रुचि का उदाहरण देते हुए लेखक कहते हैं कि किसी भी भाषा का विकास थोपे नहीं, अपनाए जाने से होता है। त्रिभाषा फार्मूले की आलोचना करते हुए यह बताया गया है कि उत्तर में संस्कृत को अनिवार्य बनाना और दक्षिण में हिंदी थोपना असमानता और संदेह को जन्म देता है।
लेखक का आग्रह है कि देश की विविधता का सम्मान करते हुए सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा मिले। फासीवादी सत्ता के ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ के अभियान से देश की एकता कमजोर होगी, मजबूत नहीं।
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विशेषताएँ:
लेख सटीक तथ्यों, इतिहास-बोध और वैचारिक स्पष्टता से परिपूर्ण है।
भाषा तेज, धारदार और जनपक्षधर है।
संघ-भाजपा की आलोचना स्पष्ट, निर्भीक और तार्किक ढंग से की गई है।
गांधी, आंबेडकर, संविधान, भाषायी विविधता और लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में खुलकर लिखा गया है।
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संपादकीय सुझाव (यदि आप छापना चाहें):
यह टिप्पणी श्रृंखला के रूप में नियमित प्रकाशित की जा सकती है, जैसे “बतौर एक नागरिक” कॉलम।
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