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आषाढ़ी पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा क्यों कहा जाता है?

रिपोर्टर टेकराम कोसले

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बौद्ध परंपरा में आषाढ़ी पूर्णिमा का विशेष महत्व है। इस दिन को धम्मचक्क पवत्तन दिवस या धर्मचक्र प्रवर्तन पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। वहीं हिन्दू समाज में यही तिथि गुरु पूर्णिमा के रूप में प्रसिद्ध है।

लेकिन वास्तव में गुरु पूर्णिमा की मूल प्रेरणा तथागत बुद्ध द्वारा दिए गए पहले उपदेश से जुड़ी है। आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन ही बुद्ध ने सारनाथ (मृगदाय वन) में अपने पाँच पूर्व साधकों—कौण्डिन्य, वप्प, भद्दीय, महाना‍म और अस्सजि—को धम्म का पहला उपदेश दिया था, जिसे धम्मचक्क पवत्तन सुत्त कहा जाता है।

गुरु परंपरा की शुरुआत

इस उपदेश में तथागत बुद्ध ने पहली बार गुरु-शिष्य परंपरा की आधारशिला रखी। यही कारण है कि इसी दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में भी जाना जाने लगा। इन पाँच भिक्षुओं ने बुद्ध को अपना गुरु स्वीकार किया और उन्हें साष्टांग प्रणाम करते हुए शिष्य बनने की प्रार्थना की। यहीं से बौद्ध संघ की स्थापना हुई।

उपदेश का सार: चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग

बुद्ध ने उपदेश में जीवन के मूल सत्य बताए, जिन्हें चार आर्य सत्य कहा जाता है:

1. दुःख – जीवन में दुःख हैं। जन्म, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, वियोग, अप्रीतिकर परिस्थितियाँ – ये सभी दुःख हैं।

2. दुःख का कारण – तृष्णा या अतिशय लालसा ही दुःख का कारण है।

3. दुःख निरोध – इस तृष्णा के समूल नाश से दुःख समाप्त हो सकते हैं।

4. दुःख निरोधगामी मार्ग – इससे मुक्ति पाने का मार्ग आर्य अष्टांगिक मार्ग है।

 

आर्य अष्टांगिक मार्ग के आठ अंग:

1. सम्यक दृष्टि

2. सम्यक संकल्प

3. सम्यक वचन

4. सम्यक कर्म

5. सम्यक आजीविका

6. सम्यक प्रयास

7. सम्यक स्मृति

8. सम्यक समाधि

 

बुद्ध ने मध्यम मार्ग की शिक्षा दी, जिसमें न तो विषय भोग में लिप्तता है और न ही आत्मपीड़ा। यह मार्ग अंतर्दृष्टि, ज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाता है।

कौण्डिन्य का ज्ञान

बुद्ध के उपदेश को सुनकर सबसे पहले कौण्डिन्य की धर्मचक्षु (आध्यात्मिक दृष्टि) खुली। बुद्ध ने कहा, “कौण्डिन्य ने जान लिया।” तभी से वे “अण्णा कौण्डिन्य” (ज्ञानी कौण्डिन्य) के नाम से प्रसिद्ध हुए।

इसलिए यह दिन बना “गुरु पूर्णिमा”

बुद्ध ने आषाढ़ पूर्णिमा को पहला उपदेश दिया, शिष्यों को दीक्षित किया और बौद्ध संघ की स्थापना की। यही कारण है कि यह दिन केवल बौद्धों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी के लिए गुरु के प्रति श्रद्धा और ज्ञान के आदान-प्रदान का पावन अवसर बन गया।

इसी दिन से वर्षावास (वर्षा ऋतु में एक ही स्थान पर निवास) की परंपरा भी शुरू होती है। भिक्षु इस दिन से चातुर्मास का पालन करते हैं और उपासक महाउपोसथ व्रत रखते हैं।

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