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इंदिरा गांधी की इमरजेंसी बनाम संघ-भाजपा का अघोषित आपातकाल I

 

इंदिरा गांधी की इमरजेंसी बनाम संघ-भाजपा का अघोषित आपातकाल I

रिपोर्टर टेकराम कोसले

(आलेख : संजय पराते)

25 जून 1975 को लगाए गए आपातकाल को आज 50 वर्ष हो चुके हैं। यह वह समय था जब देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं और नागरिक अधिकार स्थगित कर दिए गए थे। भले ही यह निर्णय संविधान के दायरे में रहकर लिया गया हो, लेकिन इतिहास ने इसे एक तानाशाही कदम के रूप में याद रखा है। कांग्रेस पार्टी भी अब इसके औचित्य को सिद्ध नहीं कर पा रही।

उस दौर में लाखों लोगों ने तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाई, यातनाएं झेली और जेल गए। कई भूमिगत हो गए। उस जनसंघर्ष की विरासत आज भी प्रेरणा देती है। परंतु उस काल में भी कुछ ऐसे संगठन थे, जिन्होंने जनआंदोलन का हिस्सा बनने की बजाय सत्ता के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया—जैसे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS)।

संघ का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और आपातकाल में भूमिका

आरएसएस की स्थापना 1925 में उस समय हुई, जब देश स्वतंत्रता संग्राम के चरम पर था। लेकिन आरएसएस का मार्ग स्वतंत्रता की दिशा में न होकर एक ‘हिंदू राष्ट्र’ की अवधारणा की ओर था। स्वतंत्रता संग्राम में इनकी भागीदारी नगण्य रही, और कई मामलों में विभाजनकारी ताकतों के सहयोगी के रूप में भी देखे गए। सावरकर द्वारा अंग्रेजों से माफ़ी माँगने और पेंशन लेने की घटनाएं इसके प्रमाण हैं। वहीं अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं की अंग्रेजों को जानकारी देने से जुड़े दस्तावेज भी सार्वजनिक हो चुके हैं।

इमरजेंसी के समय संघ के तत्कालीन प्रमुख बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर समर्थन जताया था। संघ के नेता जेल से छूटने के लिए माफीनामे लिखते रहे, और कई मामलों में सरकारी नीतियों का समर्थन भी किया। आज जबकि संघ और भाजपा के नेता खुद को उस आपातकाल के “योद्धा” कहकर प्रस्तुत करते हैं, उनके इन दस्तावेजी इतिहासों का वे आज तक खंडन नहीं कर सके हैं।

आज का अघोषित आपातकाल

आज जिस शासन व्यवस्था का हम अनुभव कर रहे हैं, वह घोषित आपातकाल से भी अधिक खतरनाक प्रतीत होती है। पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने 2015 में ही कहा था कि देश में अघोषित आपातकाल जैसी स्थिति है। तब से एक दशक बीत चुका है।

आज न केवल नागरिक अधिकार बल्कि मानवाधिकार तक दमन का शिकार हो चुके हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित हो चुकी है। वैश्विक रिपोर्टें भारत को ‘फ्लॉड डेमोक्रेसी’ यानी दोषपूर्ण लोकतंत्र घोषित कर रही हैं। प्रेस की स्वतंत्रता, धार्मिक सहिष्णुता, आर्थिक समानता जैसे क्षेत्रों में भारत की स्थिति लगातार गिरती जा रही है।

इसका स्वरूप दिखता है आदिवासियों पर माओवाद के नाम पर कार्रवाई, ‘लव जिहाद’, ‘गौ-रक्षा’, ‘धर्मांतरण’ जैसे मुद्दों पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह का मुकदमा और न्यायिक प्रक्रिया के बिना जेल में डालने जैसे कृत्यों में। बुलडोजर न्याय, चुनाव प्रक्रिया का फर्जीकरण और संसाधनों का कॉरपोरेट हितों में हस्तांतरण आज की हकीकत बन गई है।

भविष्य की राह

इंदिरा गांधी की इमरजेंसी को आम जनता ने हराया था। उसी प्रकार आज की चुनौती का भी उत्तर जनता की एकजुटता में है। भाजपा विरोधी सभी ताकतों, राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों और व्यक्तियों को अब एकजुट होकर इस अघोषित आपातकाल के विरुद्ध खड़ा होना होगा।

बिहार विधानसभा चुनाव में कथित धांधली की कोशिशें इस खतरे को और उजागर करती हैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि विपक्षी दल केवल सत्ता-लाभ की दृष्टि से नहीं, बल्कि लोकतंत्र की रक्षा के साझा लक्ष्य से एक मंच पर आएं।

उपसंहार

देश का लोकतंत्र किसी एक व्यक्ति, संगठन या सरकार की बपौती नहीं है। यह जनता की संघर्षशील चेतना का प्रतिफल है। और जब भी इस चेतना पर हमला होगा, जनता अपनी ताकत से जवाब देगी—यह इतिहास का सबक है और वर्तमान की चुनौती भी।

(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)

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