गांव सिर्फ ज़मीन नहीं, हमारी पीढ़ियों की सांस भी है, और जो अपनी सांसों को भूल जाए, वह खुद को भी खो देता है-प्रमोद साहू

शहरों की चमक-दमक, ऊँची इमारतों और व्यस्त सड़कों के बीच एक सच लगातार धुंधला पड़ता जा रहा है, हमारा गांव। वह गांव, जिसने हमें जन्म दिया, पाल पोसकर बड़ा किया, और ऐसी पहचान दी जो किसी डिग्री या बड़े पद से भी अधिक गहरी है। आज जब हम आधुनिकता की दौड़ में लगातार आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, तब हमें यह याद भी नहीं रहता कि हमारी जड़ें कहाँ हैं, और वे हमें कितना संभालकर रखती रही हैं। गांव कभी सिर्फ रहन-सहन का स्थान नहीं रहा, वह एक संस्कृति, एक जीवनशैली, एक परंपरा का केंद्र रहा है। गांव का हर आंगन पीढ़ियों की कहानियाँ अपने भीतर समेटे है। किसी की पुरखों की मेहनत, किसी की संघर्ष की दास्तान, किसी की जमीन से जुड़े रिश्ते। गांव का नाम ही हमारी नसों में बहती उस मिट्टी की पहचान का प्रतीक है, जिसने हमें सिखाया कि संपत्ति सिर्फ धन नहीं, पहचान भी होती है।

 

आज कई लोग शहरों में रह रहे हैं। उनके पास पैसा है, सुविधाएँ हैं, पर कम ही लोग यह स्वीकार करते हैं कि गांव की वह मिट्टी, वह छाँव, वह अपनापन उनके व्यक्तित्व का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। जिसके पास गांव है, उसके पास वह विरासत है जिसे पैसे में नहीं तोला जा सकता। गांव की पगडंडियों से लेकर खेत किनारे बहती हवा तक, हर चीज़ मनुष्य को ज़मीन से जोड़ती है, उसे याद दिलाती है कि वह कहीं से आया है, और उसका आधार कोई कंक्रीट की इमारत नहीं, बल्कि वह मिट्टी है जिसने उसकी पीढ़ियों को संजीवनी दी है। गांव सिर्फ पहचान नहीं देता,वह व्यक्ति को विनम्न बनाता है, उसे मन की शांति देता है, उसे याद दिलाता है कि जीवन सिर्फ कमाने खाने का नाम नहीं, बल्कि जुड़ाव और रिश्तों का नाम भी है। गांव की गलियों में आज भी वह आत्मीयता जिंदा है, जिसे शहरों की व्यस्त सड़कों पर ढूंढे नहीं मिलता। गांव में लोग कमाते भले कम हों, पर रिश्ते अमीर होते हैं, और यही संपत्ति किसी भी इंसान को भीतर से मजबूत बनाती है।लेकिन आज का दौर ऐसा हो गया है कि लोग गांव को भूला देना ही आधुनिकता मान बैठे हैं। गांव को छोड़कर शहर जाना गलत नहीं, पर गांव को भुला देना गलत है। यह सोच बदलनी होगी कि गांव में रहना पिछड़ापन है। असल में गांव में ही वह सामाजिक शक्ति है, वह सामूहिकता है, वह जीवन का संतुलन है, जिसे खोजने के लिए आज लोग ध्यान, योग और आध्यात्मिकता की शरण में जाते हैं।

 

गांव के महत्व को समझना सिर्फ भावुकता नहीं, यह हमारे अस्तित्व का सम्मान है। यदि गांव बचे रहेंगे, तभी हमारी पहचान बचेगी। यदि गांव का सम्मान जीवित रहेगा, तभी हमारी परंपरा और संस्कृति जिंदा रह पाएगी। गांवों के खत्म होने का अर्थ सिर्फ जनसांख्यिकी में बदलाव नहीं, बल्कि हमारी जड़ों के टूटने जैसा होगा।

इसलिए जरूरी है कि हम गांवों को सिर्फ अतीत की चीज़ न समझें। उन्हें बचाने, समझने और संवारने की जिम्मेदारी हमारी है। हम कहीं भी रहें, शहर में या परदेस में, पर गांव हमारे भीतर होना चाहिए। अपने गांव को याद रखना, उसे महत्व देना, उसके विकास में योगदान करना, यही वह न्यूनतम कर्तव्य है जो हर व्यक्ति को निभाना चाहिए।

सह संपादक

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