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छत्तीसगढ़ की साँसें घुट रही हैं, विकास की आड़ में कटते लाखों पेड़! तरुण खटकर

?…क्या सरकार बताएगी, कितने लोगों को मिला रोज़गार।

? वनों के बेरोकटोक कटाई का भयानक सच।

?…क्या विधानसभा में गुंजेगा ये मुद्दा।

?…. क्या राज्य के 90 विधायक, 11सांसद,5 राज्यसभा सांसद जो सवा 3 करोड़ जनता के प्रतिनिधि हैं इस गंभीर पर्यावरणीय संकट पर अपनी चुप्पी तोड छत्तीसगढ़ की हरियाली को बचाने सदन में ठोस कदम उठाएंगे।

मानसून में जब पूरा देश वन महोत्सव मनाकर प्रकृति से जुड़ने का संकल्प ले रहा था, हर तरफ़ पेड़ लगाने और पर्यावरण बचाने के संदेश गूँज रहे थे, तब छत्तीसगढ़ की ज़मीनी हकीकत चीख बनकर सामने आ रही थी। यह विडंबना ही है कि एक ओर पौधों को जीवन देने का उत्सव मनाते हैं, तो दूसरी ओर बेरोकटोक चल रही अंधाधुंध पेड़ों की कटाई पर सरकार की गहरी, असहज चुप्पी पसरी है।

यह भयावह विरोधाभास हमारे ‘धान के कटोरे’ और ‘वन प्रदेश’ के रूप में विख्यात छत्तीसगढ़ की हरियाली को सीधे-सीधे लील रहा है, हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सूनी, बंजर विरासत छोड़ रहा है।

इस गंभीर स्थिति पर अपनी गहरी चिंता व्यक्त करते हुए, सामाजिक कार्यकर्ता तरुण खटकर कहते हैं,

विकास के नाम पर लाखों पेड़ों की बलि दी जा रही है, हमारी आंखों के सामने हमारे जंगल कट रहे,हमारी नदियां सूख रही है और हमारा वन्य जीवन बेखर हो रहा है”यह सिर्फ पेड़ों का काटना नहीं है; यह हमारे छत्तीसगढ़ की आत्मा पर चोट करना है।

ऐसे में एक पेड़ मां के नाम का बाकी पेड़ किसके नाम ये सवाल उठ रहे हैं

हम किस विनाशकारी रास्ते पर हैं। ऐसे में हमारे विधायक, सांसदों कि यह चुप्पी और सरकारी तंत्र कि निष्क्रियता छत्तीसगढ़ को बहुत भारी पड़ेगी।”

 

तरुण खटकर कहते हैं

छत्तीसगढ़, जो कभी अपने सघन वनों, प्राचीन जनजातीय संस्कृतियों और अद्वितीय जैव विविधता के लिए पहचाना जाता था, आज एक बड़े पर्यावरणीय संकट के मुहाने पर खड़ा है। विकास परियोजनाओं के नाम पर, बेकाबू खनन गतिविधियों के विस्तार के लिए, हर रोज़ हज़ारों-लाखों पेड़ निर्ममता से काटे जा रहे हैं। ये कटाई पर्यावरण नियमों और पेशा कानून को धत्ता बताकर और बिना किसी गंभीर पर्यावरणीय मूल्यांकन के किए जा रहे हैं, और पर्यावरण संरक्षण महज़ कागज़ों पर सिमट कर रह गया है।

 

छत्तीसगढ़ में विकास की वेदी पर अब तक लाखों पेड़ काटे जा चुके हैं, और कई परियोजनाएं अभी भी पेड़ों की बड़ी संख्या में कटाई की प्रतीक्षा कर रही हैं।

 

यह आंकड़े बताते हैं कि हम किस विनाशकारी रास्ते पर

कुछ प्रमुख उदाहरण इस प्रकार हैं:

हसदेव अरण्य (Hasdeo Arand): यह छत्तीसगढ़ का फेफड़ा माने जाने वाला एक घना जंगल क्षेत्र है, जहाँ कोयला खनन परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई हुई है और हो रही है।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, परसा ईस्ट केते बासन (PEKB) खदान में अब तक 94,460 पेड़ काटे गए हैं।

आने वाले वर्षों में, इसी हसदेव अरण्य क्षेत्र में खनन गतिविधियों के लिए लगभग 2,73,757 पेड़ और काटे जाने हैं।

जनवरी 2024 में, परसा ईस्ट केते बासेन के लिए तीन दिनों में ही 15,000 से अधिक पेड़ काटे गए थे। इससे पहले सितंबर 2022 में भी 43 हेक्टेयर में लगे 8,000 पेड़ काटे गए थे।

स्थानीय ग्राम सभाओं और पर्यावरण कार्यकर्ताओं द्वारा लगातार विरोध के बावजूद कटाई जारी है।

रायगढ़ (Raigarh): यह ज़िला भी कोयला खनन और अन्य औद्योगिक गतिविधियों का केंद्र बन गया है, जहाँ बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जा रहे हैं।

हाल ही में, रायगढ़ जिले के तमनार तहसील स्थित मुढ़ागांव और सरईटोला गांवों में कोयला खनन के लिए 26 और 27 जून, 2025 को 5,000 से अधिक पेड़ काटे गए, जिसके विरोध में आदिवासी ग्रामीणों को हिरासत में भी लिया गया।

रायगढ़ में पिछले 5 सालों में रेल लाइन, ट्रांसमिशन लाइन, नेशनल हाईवे और केलो परियोजना जैसी विभिन्न सरकारी परियोजनाओं के नाम पर लाखों पेड़ काटे जा चुके हैं। कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार, लगभग ढाई लाख पेड़ इस अवधि में काटे गए।

संबलपुरी सीमावर्ती क्षेत्रों में ‘बटरफ्लाई ब्लिस’ जैसी निजी परियोजनाओं के नाम पर भी सैकड़ों पेड़ों की कटाई हुई है।

* अन्य क्षेत्र: दंतेवाड़ा के बैलाडीला जैसे लौह अयस्क खनन क्षेत्रों में भी बीते कुछ वर्षों में 4,920 हेक्टेयर से अधिक वन भूमि लौह अयस्क खनन के लिए डायवर्ट की जा चुकी है, जिसके कारण हज़ारों पेड़ काटे गए हैं। वन विकास निगम द्वारा भी इमारती और फलदार वृक्षों की अवैध कटाई के मामले सामने आए हैं।

सबसे अधिक परेशान करने वाला पहलू यह है कि इस बड़े पैमाने पर हो रहे वन विनाश पर सरकारी तंत्र और संबंधित विभाग या तो निष्क्रिय बने हुए हैं या फिर उनके मौन से यह गतिविधियों को और बढ़ावा मिल रहा है। वन विभाग, जिसका प्राथमिक दायित्व इन अमूल्य वनों की रक्षा करना है, वो भी हाथ पर हाथ धरे बैठा नज़र आता है खनन माफिया के सामने सत्ता सरकार विधायक सांसद बेबस नजर आ रहे हैं

 

तरुण खटकर स्पष्ट कहते हैं, “यह मौन स्वीकृति ही अपराधियों को और हौसला दे रही है। जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी, यह विनाश नहीं रुकेगा।”

 

पेड़ों की इस भयावह कटाई का सीधा और विनाशकारी असर हमारे पर्यावरण संतुलन पर पड़ रहा है। हम देख रहे हैं कि गर्मी बढ़ती जा रही है, वर्षा का चक्र बिगड़ रहा है, भूजल स्तर तेज़ी से नीचे जा रहा है और मिट्टी का कटाव विकराल रूप ले चुका है। हमारे जंगल वन्यजीवों का घर हैं, और उनके कटने से अनगिनत प्रजातियाँ अपने आवास खो रही हैं, विलुप्त होने की कगार पर पहुँच रही हैं।

इसके साथ ही, आदिवासी समुदाय, जिनकी आजीविका और संस्कृति वनों से गहराई से जुड़ी है, इस विनाश से सबसे बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं, उनके जीवन का आधार छिन रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि

 

क्या विधानसभा में गूंजेगी हरियाली बचाने की आवाज़ और रोज़गार का सवाल?

 

यह सवाल अब हर छत्तीसगढ़ी के मन में है कि क्या आने वाले सत्र में विधानसभा में यह मुद्दा गूंजेगा?

क्या राज्य के विधायक और सांसद, जो जनता के प्रतिनिधि हैं, इस गंभीर पर्यावरणीय संकट पर अपनी चुप्पी तोड़ेंगे? क्या वे सदन में इस हरियाली को बचाने के लिए कोई प्रस्ताव पारित कर ठोस कदम उठाने की पहल करेंगे, या फिर मौन रहकर छत्तीसगढ़ की अमूल्य हरियाली को लुटने देंगे?

 

तरुण खटकर सीधे सरकार से सवाल करते हैं, “जिस विकास परियोजना के नाम पर हसदेव और रायगढ़ जैसे अन्य क्षेत्रों में लाखों पेड़ बेरहमी से काटे जा रहे हैं, तो क्या सरकार विधानसभा के आने वाले सत्र में यह बताएगी कि इन निजी कंपनियों और समूहों ने छत्तीसगढ़ में कितने लोगों को वास्तविक और स्थायी रोज़गार दिया है?

 

क्या यह पर्यावरणीय विनाश, जो हमारी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य छीन रहा है, मुट्ठी भर लोगों को अस्थाई मिलने वाले रोज़गार के सामने जायज़ ठहराया जा सकता है?”

 

राज्य की प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस द्वारा लगातार हंगामा और विरोध प्रदर्शन के बावजूद, सत्ताधारी सरकार की खामोशी कई सवाल खड़े करती है।

क्या सरकार को छत्तीसगढ़ के पर्यावरण और उसके भविष्य से वाकई कोई लेना-देना नहीं है? क्या विकास की परिभाषा केवल कंक्रीट के जाल और खनन से होने वाले राजस्व तक ही सीमित रह गई है, क्या इसके बदले हरे-भरे जंगलों का विनाश स्वीकार्य है? और आप सबो की चुप्पी न केवल जनता के विश्वास को तोड़ती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि पर्यावरणीय मुद्दों को कितनी गंभीरता से लिया जा रहा है।

 

छत्तीसगढ़ की हरियाली को बचाने के लिए अब केवल चिंता व्यक्त करने के बजाय निर्णायक और प्रभावी कार्रवाई करनी होगी। वरना, वह दिन दूर नहीं जब हमारा यह हरा-भरा राज्य अपनी पहचान खो देगा और हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को केवल धूल, सूखा और विनाश की एक बंजर विरासत सौंपेंगे।”

सह संपादक

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